
परिस्थितियां विपरित फिर भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिकी यात्रा कामयाब! क्या मतलब है ‘विपरित परिस्थितियों’ का? जवाब है राष्ट्रपति बाइडेन, उपराष्ट्रपति कमला हैरिस बनाम नरेंद्र मोदी के मिजाज, फितरत का फर्क। अमेरिका का मौजूदा तथ्य है कि वहां मोदी सरकार की लोकतांत्रिक साख जीरो है। तभी बाइडेन और कमला हैरिस ने प्रधानमंत्री का सर्द स्वागत किया। इन्होने मुलाकात में और वार्ता के बाद अपने टिवट या बयान से सार्वजनिक तौर पर नरेंद्र मोदी को नसीहत दी। मसलन- महात्मा गांधी के आदर्शों जैसे अहिंसा, सम्मान और सहिष्णुता की आज के दौर में बहुत ज़रूरत है। या यह वाक्य कि- यह ज़रूरी है कि हम अपने देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थानों की रक्षा करें।…..मैं अपने व्यक्तिगत अनुभव से जानती हूँ कि क्या काम किए जाने की ज़रूरत है। हमें सोचना चाहिए कि हम क्या चाहते हैं और हम हमारे लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थाओं के लिए क्या नज़रिया रखते हैं। दरअसल बाइडेन प्रशासन ने मैसेजिग के नाते भी मोदी का स्वागत प्रोग्राम बनाया। Narendra Modi US visit
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सर्वप्रथम मानवाधिकारों की जिद्द वाली उपराष्ट्रपति कमला हैरिस से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की बात कराई। उन्होने निश्चित ही प्रधानमंत्री से भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं की गिरावट पर बेबाकी से बात की होगी। तभी अमेरिकी अखबार लॉस एंजिलिस टाइम्स (अभी तक दिखी खबरों में अकेला अमेरिकी अखबार जिसने मोदी यात्रा की एक खबर छापी) की खबर का शीर्षक था ‘कमला हैरिस ने एतिहासिक मुलाक़ात में भारत के मोदी को मानवाधिकार पर हल्का दबाव महसूस कराया।’…. कमला हैरिस ने बंद दरवाज़ों के पीछे बैठक से पहले मोदी से कहा कि पूरी दुनिया में लोकतंत्रों पर ख़तरा मंडरा रहा है ‘यह ज़रूरी है कि हम अपने देशों में लोकतांत्रिक मूल्यों और संस्थानों की रक्षा करें। अखबार का यह भी लिखना था-‘ट्रंप प्रशासन जिस तरह से मोदी के प्रति रवैया रखता था, यह उसमें बदलाव है क्योंकि पीएम मोदी के कार्यकाल में उनके देश में धार्मिक ध्रुवीकरण बढ़ा है।
प्रशासन के सर्द नजरिए का यह तथ्य भी गौरतलब हैं कि जब नरेंद्र मोदी द्विपक्षीय बैठक के लिए वहाइट हाउस पहुँचे तो राष्ट्रपति बाइडन ने उनका बाहर आकर स्वागत नहीं किया बल्कि ओवल ऑफ़िस में मोदी को ले जाया गया, जहां बाइडन उनसे मिले।
सोचे, नरेंद्र मोदी को कोई नसीहत दे तो वे मन ही मन उसे किस भाव लेते हुए होंगे? मगर नरेंद्र मोदी और उनके साथ गई टीम ने परिस्थितियों की बारीकी में जाना-समझा हुआ था कि वक्त बदल गया है। उस नाते सितंबर 2021 की अमेरिका यात्रा कई मायनों में सात साला मोदी राज के कार्यकाल का निचोड़ भी है! पूर्व की छह अमेरिकी यात्राओं में जो हुआ और इस दफा जो हुआ उसका फर्क बताता है कि नरेंद्र मोदी कहां से शुरू हुए थे और कहां पहुंचे! मतलब भारत कहां पहुंचा? याद करें 2014 में नरेंद्र मोदी चीन के राष्ट्रपति शी जिन पिंग को साबरमती के किनारे झूला झुलवाते हुए थे जबकि इस 25 सितंबर को उन्होने संयुक्त राष्ट्र की महासभा में बिना चीन का नाम लिए विस्तारवाद के हवाले उस पर निशाना साध कर दुनिया को भारत की पोजिशनिंग बताई। वाशिंगटन में चीन के खिलाफ क्वाड गठजोड़ में भारत की भागीदारी पुख्ता की।
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सो भारत अब अघोषित तौर पर चीन को पाकिस्तान के समतुल्य दुश्मन बता चुका है। यह विदेश नीति का दो टूक ऐतेहासिक मोड़ है।
ऐसा क्यों? मजबूरी के चलते। अपने स्तंभकार डा वेदप्रताप वैदिक नया इंडिया में बार-बार चीन के संदर्भ में अमेरिका के पिछलग्गू न बनने और अमेरिका की गोदी में न बैठने की सलाह देते है लेकिन इसके ठिक विपरित मेरा मानना है कि भारत और उसकी हिंदू राजनीति के पास अमेरिका और पश्चिमी सभ्यता की गोदी के अलावा विकल्प क्या है? हर भारतीय को समझना चाहिए कि पिछले डेढ़ साल से चीन की सीमा पर भारत की कितनी सेना तैनात है? इससे उसको कितने अरब-खरब रू सालाना का खर्चा भुगतना पड़ रहा होगा? मोदी राज में और खासकर पिछले दो सालों में चीन और पाकिस्तान दोनों की सीमाओं पर ऐसा भारी सैनिक खर्च बना है कि आर्थिकी की महामारी से अधिक बरबादी सैनिक चौकसी के खर्च के चलते हो रही होगी।
तो अमेरिका और पश्चिमी देशों के गठजोड़ का हिस्सा बनना प्रधानमंत्री मोदी और भारत की मजबूरी है। फिर पश्चिम जब चीन के खिलाफ कमर कसते हुए है तो भारत के लिए स्वभाविक सुनहरा मौका है और भविष्य में सुरक्षा का रास्ता भी। सात साल पहले नरेंद्र मोदी ने शी जिन पिंग को झूले झुलाते या काबुल में हमीद करजई को पटाने या वहा से अचानक नवाज शरीफ के घर लाहौर जा कर पकौड़े खाने की जो कूटनीति की थी उस सबमें रियलिटी और अनुभव की बजाय हवाबाजी और वाहवाही का चस्का था जिसकी भारत को अब भारी कीमत अदा करनी पड रही है। तभी आश्चर्य नहीं जो नरेंद्र मोदी ने बाइडेन प्रशासन के सर्द रूख के बावजूद उसकी हां में हां मिलाई और फिर संयुक्त राष्ट्र आमसभा में विस्तारवाद व आंतकवाद की जुमलेबाजी से पाकिस्तान-चीन दोनों से दो टूक पंगे का ऐलान करके कवॉड भावना को दर्शाया।
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अमेरिकी यात्रा की ठोस-निर्णायक बात क्वॉड याकि ‘क्वाड्रिलेटेरल सुरक्षा वार्ता’ के चौगुट (अमेरिका, जापान, ऑस्ट्रेलिया और भारत) के राष्ट्र्घ्यक्षों की व्हाइट हाउस में शिखर वार्ता है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चौगुट साझे की शिखर वार्ता में न केवल जोश दिखाया बल्कि इसके बाद के संयुक्त राष्ट्र महासभा के भाषण में भी चीन पर निशाना साधा। कवॉड शिखर सम्मेलन को ले कर अमेरिकी अख़बार ‘द वॉशिंगटन पोस्ट’ ने लिखा है कि बाइडन ने नरेंद्र मोदी को भरोसा दिलाया है कि वे भारत के साथ एक मज़बूत साझेदारी निभाने जा रहे हैं।….”अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका के बाहर निकलने के बाद बाइडन प्रशासन का ध्यान और संसाधन अब चीन पर है। इसके लिए उसे भारत की चिंताओं को दूर करने की ज़रूरत है। उसे चीन से काफ़ी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ रहा है और साथ ही उसे पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के इस्लामी चरमपंथी समूहों से ख़तरा है, जिनको भारत भी एक शत्रु के तौर पर देखता है।….वैश्विक मामलों की जानकार पाऊला डोब्रियन्सकी कहती हैं, “मैं इसे शीत युद्ध को रोकने वाला नहीं देखती हूँ बल्कि इसे एक संघर्ष की शुरुआत के तौर पर देखती हूँ।” अख़बार की माने तो इस बैठक के बाद क्वॉड देशों के बीच कई क्षेत्रों में समझौते होने की संभावनाएं हैं…इन सौदों में सेमी कंडक्टरों की सप्लाई चेन की पहल पर ध्यान केंद्रित है। इसके अलावा 5जी सिस्टम में तेज़ी लाने और साइबर ख़तरों के ख़िलाफ़ महत्वपूर्ण आधारभूत ढांचे बनाने पर भी समझौते अंतिम रूप ले सकते हैं।
ध्यान रहे चीन क्वॉड को एशिया का नेटो कह चुका है। हकीकत में फिलहाल नेटो जैसी कोई बात नहीं है बावजूद इसके इतना तय है कि पूरी कवायद चीन को ले कर है।
तभी भारत की विदेश नीति का यह वक्त सामरिक-रणनीतिक-भूराजनैतिक रीति-नीति में ऐतेहासिक परिवर्तन का मोड़ है। सोचे इससे बीजिंग और चीनी लीडरशीप में भारत को लेकर कैसी गहरी गांठ बन रही होगी। भूल जाए कि चीन इससे डर कर भारत को पटाने, पंगा घटाने और सीमा पर सामान्य स्थिति बहाल करने की सोचेगा। चीन या उसके राष्ट्रपति शी जिन पिंग या उनके पूर्ववर्ती माओ, चाउ-एन-लाई की भारत से सभ्यतागत एलर्जी जन्मजात है। माओ का कम्युनिस्ट राज भी भारतीय नेताओं की हवाबाजी, गुटनिरपेक्षता जैसी नैतिक जुमलेबाजी से चिढ़ता था तो पिछले तीस सालों में भी भारत के प्रति वह इस भाव में रहा है कि भारत का मतलब मुनाफे का सस्ता, बिना प्रतिस्पर्धा का घटिया सामानों का बाजार है और भारतीय नेताओं, कंपनियों और उपभोक्ताओं को सस्ते में पटाया जा सकता है।
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तभी प्रधानमंत्री मोदी ने कितनी ही बार शी जिन पिंग को जुमलों के झूले में झुलाया लेकिन बदले में डोकलाम से लेकर लद्दाख, अरूणांचलप्रदेश के किसी भी मामलें और पडौसियों में भारत को आउट करवाने में चीन ने कोई कमी नहीं रखी।
सो सात वर्षों में मोदी राज की उपलब्धि चीन और दक्षिण एसिया के देशों से भारत के लगातार बिगडते रिश्ते। उधर पाकिस्तान बना वैश्विक आंतकवाद की अफगान फैक्ट्री का गॉडफादर! तीसरी उभरती रियलिटी चीन-पाकिस्तान-तालिबानियों का वह नया त्रिगुट जिसके सिरदर्द, माईग्रेन में भारत की सुरक्षा भविष्य में लगातार खतरे में रहेगी।
तभी वाशिंगटन की अमेरिका-आस्ट्रेलिया, जापान, भारत के चौगुट की कोशिश मोदी सरकार के लिए लपकने का मौका है। वाशिंगटन में बाइडेन-नरेंद्र मोदी की बातचीत और फिर क्वॉड के चारों राष्ट्राध्यक्षों की बैठक से चीन और पाकिस्तान दोनों को मैसेज चला गया है कि भारत अब पश्चिमी देशों का पार्टनर है और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सामरिक-रणनीतिक हितों में भारत के साथ अमेरिका, जापान, आस्ट्रेलिया है। यदि चीन ने सीमा पर, दक्षिण एसिया के पडौसी देशों में ज्यादा हरकत की तो क्वाड-पश्चिमी देशों का बल भारत के पीछे होगा। ऐसे ही इस्लामाबाद में चिंता बन गई है कि पहले अमेरिका, ब्रिटेन आदि में उसका जो महत्व था वह जीरो हो गया है। बाईडेन ने इमरान खान से बातचीत तक नहीं की और पूरे अमेरिका में मौटे तौर पर पाकिस्तान को तालिबानियों के साथ चिंहित किया जाने लगा है।
इस नई रियलिटी के चलते ही इमरान खान संयुक्त राष्ट्र की महासभा के भाषण में भारत पर निशाना साधने के साथ पाकिस्तान के प्रति अमेरिकी कृतघ्नता वाली भंडास भी सार्वजनिक कर बैठे। मतलब इस्लामाबाद अब अमेरिका-भारत के साझे के सत्य को समझ रहा है। तभी तय माने कि आने वाले महिनों में अफगानिस्तान के हालात और तालिबानियों के साथ पाकिस्तान व चीन के याराना से विश्व राजनीति में भारत-पश्चिमी देशों का साझा अपने आप बढ़ेगा और मान्य होता जाएगा।
इसीलिए यह वक्त भारत की विदेश नीति और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की सामरिक भू-राजनीति में टाईटेनिक शिफ्ट वाला। गौरतलब पहलू है कि प्रधानमंत्री मोदी बनाम बाइडेन- कमाल हैरिस की फितरत न मिलने के बावजूद ऐसा होता हुआ है। तभी यह भी सोतने वाली बात है कि सात साल पहले अमेरिका में नरेंद्र मोदी का क्या जलवा था और उनसे बराक ओबामा, केमरॉन जैसे पश्चिमी नेता कैसी उम्मीदे लिए हुए थे और भारत से वे क्या उम्मीद करते हुए थे जबकि अब भारत क्या चाहता हुआ है? एक तरफ वैश्विक थिंक टैंक, लौकतांत्रिक-मानवाधिकार प्रतिष्ठानों, वैश्विक मीडिया में नरेंद्र मोदी व उनकी सरकार की लोकतांत्रिक साख-धाक 2014-15 से उलटी है। कुछ दिन पहले ही अमेरिका में नामी विश्विद्यालयों में हिंदुत्व को लेकर बवाल-बहस का प्रायोजन हुआ। अमेरिकी मीडिया में मोदी की यात्रा को रत्ती भर महत्व नहीं मिला। न सन् 2014 की तरह अमेरिकी नेता, खरबपति मोदी से कतार में मिलते हुए थे और न कुछ बसों से लाई गई प्रायोजित भीड से पहले जैसा हो-हल्ला बना। लेकिन बावजूद इसके उपलब्धि के नाते ऐतिहासिक यात्रा। अमेरिका-भारत में रणनीतिक-सामरिक रिश्ते में मील का नया पत्थर! चाहे तो इसे चीन के आगे लाचारगी माने या मौका!