
कमला हैरिस ने नसीहत देने के अंदाज में जो बात कही और उसके जवाब में प्रधानमंत्री ने विश्व मंच से जो कुछ कहा, क्या उससे अच्छी कोई बात हो सकती है? क्या लोकतंत्र और विविधता से भी सुंदर कोई विचार आज मौजूद है? दुनिया के जानकार भले कहें कि अब एक विचार के रूप में लोकतंत्र की उम्र पूरी हो गई है और विविधता एक भ्रम है, लेकिन हकीकत यह है कि कोई भी इसका स्वीकार्य विकल्प नहीं प्रस्तुत कर पाया है। Narendra modi US visit
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अमेरिका यात्रा की एक अच्छी बात यह है कि लोकतंत्र, लोकतांत्रिक मूल्य और लोकतांत्रिक संस्थाएं चर्चा के केंद्र में हैं। प्रधानमंत्री मोदी जब अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस से मिले तो इस बारे में बात हुई और साझा प्रेस कांफ्रेंस में कमला हैरिस ने लोकतंत्र का मुद्दा उठाया। उनको शब्द थे- मैं लोकतंत्र और आजादी के प्रति भारत के नागरिकों की प्रतिबद्धता को अपने और अपने परिवार के अनुभवों से जानती हूं। इसके बाद उन्होंने उम्मीद जताई कि लोकतंत्र के सिद्धांतों और लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति दृष्टिकोण को हासिल करने के लिए काम हो सकता है और होगा। इसके दो दिन बाद प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित किया तो लोकतंत्र के बारे में अपने विचार जाहिर किए वह एक तरह से कमला हैरिस की चिंताओं का जवाब था। प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत लोकतंत्र की जननी है और विविधता इसकी ताकत है। उन्होंने कहा कि भारत में दर्जनों भाषाएं हैं, सैकड़ों बोलियां हैं, अलग अलग पहनावा और खान-पान है और यहीं भारत के लोकतंत्र की ताकत है। प्रधानमंत्री ने अपना संदर्भ देते हुए कहा कि यह भारत के लोकतंत्र की ताकत है, जो एक चाय बेचने वाला आज देश का प्रधानमंत्री है।
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कमला हैरिस ने नसीहत देने के अंदाज में जो बात कही और उसके जवाब में प्रधानमंत्री ने विश्व मंच से जो कुछ कहा, क्या उससे अच्छी कोई बात हो सकती है? क्या लोकतंत्र और विविधता से भी सुंदर कोई विचार आज मौजूद है? दुनिया के जानकार भले कहें कि अब एक विचार के रूप में लोकतंत्र की उम्र पूरी हो गई है और विविधता एक भ्रम है, लेकिन हकीकत यह है कि कोई भी इसका स्वीकार्य विकल्प नहीं प्रस्तुत कर पाया है। आज भी लोकतंत्र ही शासन की सबसे अच्छी प्रणाली है और बहुलता की रक्षा ही लोकतंत्र को बचाने का उपाय है। इसलिए प्रधानमंत्री ने जो कहा वह खुश होने की बात है। ऐसे मुश्किल समय में, जब भारत की प्राचीन बहुलता पर कई किस्म के खतरे मंडरा रहे हैं और लोकतंत्र व लोकतांत्रिक संस्थाएं चुनौतियों का सामना कर रही हैं, तब प्रधानमंत्री का भाषण एक किस्म का भरोसा पैदा करता है। सो, यह उम्मीद करनी चाहिए कि दुनिया के सामने उन्होंने जो कहा है उस पर भारत में अमल होगा।
यह उम्मीद करनी चाहिए कि प्रधानमंत्री खुद पहल करके उस जमात के लोगों को सख्त निर्देश देंगे, जिनको लग रहा है कि इस देश को एक रंग में रंगे बगैर देशप्रेम या देश की सुरक्षा सुनिश्चित नहीं होगी। दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय से भारत में बहुलता को खत्म करने और लोकतंत्र को कमजोर करने का एक सुनियोजित अभियान चल रहा है। जिसके तहत कहीं खान-पान को नियंत्रित करने का प्रयास हो रहा है और खान-पान की खास पसंद रखने वालों की लिंचिंग हो रही है तो कहीं पिता को अब्बाजान कहने वालों को निशाना बनाया जा रहा है तो कहीं अली और बजरंग बली के नाम पर विवाद पैदा किया जा रहा है। कहीं कपड़ों से दंगाई को पहचानने की बात हो रही है और तो कहीं दूसरे धर्म के लोगों को पकड़ कर उनसे जबरदस्ती जय श्रीराम के नारे लगवाए जा रहे हैं। उम्मीद की जानी चाहिए कि प्रधानमंत्री ने संयुक्त राष्ट्र संघ में जो भाषण दिया है उसके बाद इस तरह की घटनाओं पर रोक लगेगी। यह सुनिश्चित किया जाएगा कि खान-पान, पहनावा, रहन-सहन, बोली और भाषा किसी के साथ भेदभाव का कारण नहीं बनेंगे।
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इसके साथ ही इस बात पर भी विचार करने की जरूरत है कि आखिर अमेरिका की उप राष्ट्रपति कमला हैरिस को भारत में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक संस्थाओं के बारे में नसीहत देने की जरूरत क्यों महसूस हुई? क्या दुनिया यह महसूस कर रही है कि भारत में लोकतंत्र का विचार और लोकतांत्रिक संस्थाएं किसी किस्म की मुश्किल का सामना कर रही हैं? असल में पिछले कुछ समय से भारत में एक उदारवादी विचारधारा के तौर पर लोकतंत्र चुनौतियों का सामना कर रहा है। यह सही है कि चुनाव हो रहे हैं और जीतने वाली पार्टियां शासन संभाल रही हैं। लेकिन लोकतंत्र का इतना ही मतलब नहीं होता है। अफसोस की बात है कि भारत में लोकतंत्र सिर्फ चुनावों तक सीमित होता जा रहा है। चुनाव की सीमा से बाहर लोकतंत्र का एक बड़ा दायरा है, जो किसी न किसी तरीके से हमले का शिकार हो रहा है और दबाव महसूस कर रहा है। यह हैरानी की बात है कि सोशल मीडिया में या सार्वजनिक विमर्श में उदार होना मजाक का विषय बन गया है। केंद्र में सत्तारूढ़ दल का समर्थन करने वाली कई मशहूर हस्तियां, जिनमें फिल्म, राजनीति, पत्रकारिता आदि के लोग भी शामिल हैं वे लिबरल शब्द को गाली की तरह ले रहे हैं। लिबरल लोगों के लिए ‘लिबरांडू’ या ‘लिबरटाड’ जैसे अपमानजनक शब्दों का इस्तेमाल किया जा रहा है। लोकतंत्र को कमजोरी का पर्याय बताया जा रहा है और एक सर्वशक्तिमान सत्ता को देश की जरूरत के रूप में रेखांकित किया जा रहा है।
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सरकार के कामकाज को लेकर सवाल उठाने वाले कठघरे में खड़ा किए जा रहे हैं और उनको देशद्रोही बताया जा रहा है। केंद्र सरकार की एजेंसियां अखबारों और मीडिया समूहों पर छापेमारी कर रही है। इससे पहले कर चोरी के आरोप आमतौर पर कारोबारियों के ऊपर लगते थे और मीडिया को पवित्र गाय माना जाता था। लेकिन अब कारोबारी तो हजारों-लाखों करोड़ रुपए के गबन कर रहे हैं, बैंक से कर्ज लेकर गायब हो रहे हैं या दिवालिया बन कर बैंकों का पैसा डकार रहे हैं लेकिन उनकी बजाय छोटे-छोटे मीडिया समूहों को निशाना बनाया जा रहा है। सरकारी एजेंसियां सामाजिक व मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को पकड़ रही है और ऐसे आरोपों में उनको महीनों, सालों तक जेल में बंद रखा जा रहा है, जिसे साबित करने के लिए एजेंसियों के पास कोई सबूत नहीं होते हैं। कई उम्रदराज सामाजिक कार्यकर्ता इस समय भी जेलों में बंद हैं। विपक्षी पार्टियों को बदनाम करने का व्यवस्थित अभियान चल रहा है। विपक्ष की लगभग हर पार्टी के किसी न किसी नेता के खिलाफ केंद्रीय एजेंसियों की जांच चल रही है।
संस्थाओं का सम्मान और उनका महत्व जान बूझकर कम किया जा रहा है। संसद में सरकार किसी मसले पर चर्चा कराने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखा रही है और जिन विधेयकों पर विपक्ष की पार्टियां सवाल उठाती हैं, उनका जवाब देने की बजाय सरकार जोर जबरदस्ती कानून पास करा रही है। देश के आम नागरिकों, सरकारी कर्मचारियों, जजों, केंद्रीय मंत्रियों तक की जासूसी कराए जाने की खबर का खुलासा हुआ है पर सरकार ने उस मसले पर संसद में चर्चा नहीं कराई। देश के किसान 10 महीने से आंदोलन पर बैठे हैं और सरकार ने पिछले आठ महीने से उनसे बातचीत बंद कर रखी है। ऐसी अनगिनत चीजें हैं, जिनसे लोकतंत्र का विचार और लोकतांत्रिक संस्थाओं की बुनियाद कमजोर होती दिख रही है। इसलिए यह उम्मीद करनी चाहिए कि अमेरिका के साथ दोपक्षीय वार्ता में और विश्व मंच पर लोकतंत्र को लेकर जो चर्चा हुई है और इसे लेकर जो प्रतिबद्धता जाहिर की गई है वह वास्तव में फलीभूत होगी।