
क्या किसी सभ्य समाज में इस बात की कल्पना की जा सकती है कि कोई सरकार अपने नागरिकों से इस किस्म की लड़ाई में उलझे? भारत सरकार अपने नागरिकों से ऐसी लड़ाई में उलझी है, जिससे सबका नुकसान हो रहा है।… जिनके लिए कानून बनाया गया है वे कानूनों का विरोध कर रहे हैं, अदालत ने कानूनों के अमल पर रोक लगा रखी है, कानूनों पर विचार के लिए बनी कमेटी की सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं और बेपरवाह सरकार अब भी दावा कर रही है कि वह किसानों की आय दोगुनी कर देगी! kisan andolan agriculture law
यह भारत सरकार की जिद है कि भले तीनों विवादित कृषि कानून लागू न हों लेकिन उसे रद्द नहीं करेंगे। संसद में जोर-जबरदस्ती बनाए गए तीनों कानूनों का एक साल पूरा हो गया है और अगले दो दिन में किसान आंदोलन के 10 महीने पूरे होने वाले हैं। एक तरफ किसान अपनी जमीन बचाने और फसल बेचने के अपने बुनियादी अधिकार की रक्षा की लड़ाई लड़ रहे हैं तो दूसरी ओर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की चुनी हुई सरकार इस बात पर अड़ी है कि चाहे कुछ हो जाए वह कानूनों को रद्द नहीं करेगी। ये कानून अभी देश में लागू भी नहीं हैं। इनके अमल पर रोक लगी है और खुद केंद्र सरकार अपनी मर्जी से इन कानूनों के विपरीत फैसले भी कर रही है लेकिन इस बात पर अड़ी है कि वह इन्हें रद्द नहीं करेगी। क्या किसी सभ्य समाज में इस बात की कल्पना की जा सकती है कि कोई सरकार अपने नागरिकों से इस किस्म की लड़ाई में उलझे? भारत सरकार अपने नागरिकों से ऐसी लड़ाई में उलझी है, जिससे सबका नुकसान हो रहा है।
केंद्र सरकार के बनाए तीन कृषि कानूनों के विरोध में देश भर के किसान 26 नवंबर से आंदोलन कर रहे हैं और दिल्ली की सीमा पर धरने पर बैठे हैं। इस आंदोलन के दौरान सैकड़ों किसान अपनी जान गंवा चुके हैं। किसानों के साथ साथ आम लोगों को जो परेशानी हो रही है और आर्थिकी का जो नुकसान हो रहा है वह अपनी जगह है। लेकिन सरकार इनमें से किसी पहलू पर विचार नहीं कर रही है। वह सिर्फ इस जिद पर अड़ी है कि किसान जो मांग कर रहे हैं उसे नहीं मानेंगे। इसलिए नहीं मानेंगे क्योंकि सरकार को लग रहा है कि फिर कोई भी भीड़ दिखा कर या दबाव बना कर सरकार को झुकाने का प्रयास करेगा। यानी किसानों की मांग मानने से गलत नजीर बनेगी। क्या कोई लोकतांत्रिक सरकार किसी लोकप्रिय आंदोलन या प्रतिरोध के बारे में इस तरह से सोच सकती है?
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केंद्र सरकार ने जो तीन कानून बनाए हैं उनको मोटे तौर पर समझें तो पहला कानून मंडियों की मौजूदा व्यवस्था के समानांतर निजी मंडियों की इजाजत देता है और किसानों को अपना उत्पाद देश में कहीं भी बेचने की छूट देता है। दूसरा कानून ठेके पर खेती यानी कांट्रैक्ट फार्मिंग से जुड़ा और तीसरे कानून के जरिए आवश्यक वस्तु अधिनियम को बदला गया है। किसान इन तीनों कानूनों को रद्द करने की मांग कर रहे हैं और इसके पीछे उनके पास ठोस तर्क हैं। प्रधानमंत्री ने खुद लाल किले से कहा है कि देश के 86 फीसदी किसानों के पास दो एकड़ से कम जमीन है। यानी ज्यादातर किसान छोटे और कम जोत वाले हैं, जिनका कुल उत्पादन अपने परिवार के ही काम आता है। फिर उनको क्यों देश भर का खुला बाजार चाहिए और क्यों कांट्रैक्ट फार्मिंग के जाल में उनको उलझना है। इसी तरह आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव करके बड़े करोबारियों को असीमित मात्रा में कृषि उत्पाद खरीदने और उनकी जमाखोरी की इजाजत देना कहां की समझदारी है? इसकी मार तो किसानों के साथ साथ आम उपभोक्ता पर भी पड़ेगी। क्योंकि इस कानून में बदलाव से जमाखोरी करने वाले अपने हिसाब से बाजार को चलाएंगे और कीमतें नियंत्रित करेंगे!
केंद्र सरकार खुद आवश्यक वस्तु अधिनियम में बदलाव के खतरे को समझ रही है और तभी पिछले दिनों पीयूष गोयल के वाणिज्य मंत्रालय ने दालों का स्टॉक सीमित रखने का आदेश दिया था। देश में जब दालों की कीमत बढ़ी तो वाणिज्य मंत्रालय ने नए नियम जारी किए और कहा कि थोक कारोबारी दो सौ टन और खुदरा कारोबारी पांच टन से ज्यादा दालों का स्टॉक नहीं कर सकते हैं। सोचें, खुद सरकार इस कानून में अपवाद बना रही है क्योंकि उसको लग रहा है कि जमाखोरी करके दालों की कीमत बढ़ाई जा सकती है। लेकिन यहीं खतरा बता कर किसान और समझदारी कृषि विशेषज्ञ सरकार को कानून वापस लेने के लिए कह रहे हैं तो वह इसके लिए तैयार नहीं हो रही है। क्योंकि सरकार मान रही है कि अगर उसने कानून वापस लिया तो उसकी धमक कम होगी।
दिलचस्प बात यह है कि केंद्र सरकार ने पिछले साल मॉनसून सत्र में संसद में जोर-जबरदस्ती करके जो तीन कृषि कानून बनवाए उन पर सुप्रीम कोर्ट ने इस साल 12 जनवरी के अमल पर रोक लगा दी। सरकार खुद भी किसानों के साथ हुई कई दौर की बातचीत में इन कानूनों पर डेढ़ साल के लिए रोक लगाने को तैयार थी। संयुक्त किसान मोर्चा की एक मांग नए बिजली कानून को वापस लेने की है, जिसे मानने के लिए सरकार तैयार थी। पिछले साल दिसंबर के आखिर में किसानों से बातचीत में केंद्र सरकार इस बात के लिए तैयार हो गई थी कि पराली जलाने को अपराध बनाने वाला कानून वापस ले लिया जाएगा। यानी टुकड़ों टुकड़ों में सरकार कानूनों पर रोक लगाने, उनका अमल रोकने या कुछ कानूनों को वापस लेने के लिए तैयार है पर किसान जिन तीन कानूनों का विरोध कर रहे हैं उन्हें वापस नहीं लेगी।
कितनी हैरानी की बात है कि जिन कानूनों को लेकर सरकार इस तरह का अड़ियल रुख अपनाए हुए है उन कानूनों पर सुप्रीम कोर्ट ने नौ महीने से रोक लगाया हुआ है और सरकार को इसकी कतई परवाह नहीं है कि वह रोक हटवाने के लिए अदालत से अनुरोध करे। इस साल 12 जनवरी को लगी रोक हटाने के लिए केंद्र सरकार एक बार सुप्रीम कोर्ट नहीं गई है। सुप्रीम कोर्ट ने इन रोक लगाते समय ही तीन सदस्यों की एक कमेटी बनाई थी, जिसने मार्च में ही अपनी रिपोर्ट सीलबंद लिफाफे में सर्वोच्च अदालत को सौंप दी। उस कमेटी के एक सदस्य अनिल घनवत ने पिछले दिनों इस पर सवाल भी उठाया था कि आखिर अदालत क्यों नहीं कमेटी की सिफारिशें सार्वजनिक कर रही है या उसे सरकार को भेज रही है। लेकिन हर तरफ चुप्पी है। अदालत भी इस पर आगे कोई कार्रवाई नहीं कर रही है और न सरकार को इस बात की चिंता है कि रोक हटे और कानून लागू हों।
अदालत और सरकार दोनों के रवैए से यह जाहिर होता है कि कानून एक तरह से गैरजरूरी हैं क्योंकि अगर इनकी जरूरत होती या सरकार किसानों के भले के लिए इन्हें अनिवार्य मान रही होती तो वह इन्हें लागू करने के लिए सुप्रीम कोर्ट के पास जाती और रोक हटाने का अनुरोध करती। वह ऐसा कोई काम नहीं कर रही है। कानूनों पर अमल स्थगित है और आंदोलन करने वाले किसान देश भर में घूम घूम कर आंदोलन की अलख जगा रहे हैं। लेकिन सरकार ने जिद पकड़ी हुई है कि कानूनों को रद्द नहीं करेंगे। जिनके लिए कानून बनाया गया है वे कानूनों का विरोध कर रहे हैं, अदालत ने कानूनों के अमल पर रोक लगा रखी है, कानूनों पर विचार के लिए बनी कमेटी की सिफारिशें ठंडे बस्ते में पड़ी हैं और बेपरवाह सरकार अब भी दावा कर रही है कि वह किसानों की आय दोगुनी कर देगी!