
कश्मीर घाटी का सत्य-18: बतौर गृह मंत्री अमित शाह का जो मतलब है सो है। पर उनका असल अर्थ उस विचारधारा, उस हिंदू राजनैतिक दर्शन के चेहरे-मौहरे के नाते है जिसने जम्मू-कश्मीर को भारत में समरस बनवाने के प्रण में दशकों राजनीति की। तभी बतौर गृह मंत्री धारा-370 खत्म करवाने का पांच अगस्त 2019 का उनका काम संघ परिवार, हिंदू राजनीति का अपूर्व-ऐतेहासिक दिन था। उस दिन एक देश में दो संविधान और 1947 के बाद जम्मू-कश्मीर को ले कर हुई गलतियों का झेलम में अस्थि-विसर्जन था! बावजूद इसके इतिहास का जिन्न तो जस का तस है! कैसे? तब सोचे क्या कश्मीर घाटी भारत में समरस है? कश्मीर घाटी 1947 में जो थी उससे अधिक आज इस्लामियत में रंगी हुई क्या नहीं है? मतलब आबादी में मुस्लिम बहुलता और उसकी वजह से भारत की धर्मनिरपेक्षता, सनातनी हिंदू के सर्वधर्म समभाव को इस्लाम का ठेंगा। भारत की एकता-अखंडता को खतरा और सैन्य बल की भारी तैनातगी के साथ संसाधनों की भयावह कुरबानी वाला स्थाई नासूर! Truth of kashmir valley
कश्मीर घाटी का सत्य-17 : घाटी है सवालों की बेताल पचीसी!
सो धारा-370 के खत्म होने और जम्मू-कश्मीर के पुर्नगठन से समस्या की जड़, बुनावट, प्रकृति का निदान नहीं हुआ है। भारत के आगे तब भी चुनौती थी और आज भी है कि मुस्लिम बहुलता की दलील कैसे खत्म हो? अमित शाह और हिंदू राजनीति की फाइनल परीक्षा यह है कि जैसे जम्मू में हिंदू -मुस्लिम साझा चुल्हा है तो वैसे ही जवाहर सुरंग के बाद घाटी में भी हिंदू-मुस्लिम की साझा-बराबरी वाली आबादी की रिहायश बने। ताकि तालिबान हो या पाकिस्तान या इस्लामी देश व दुनिया में कही पर भी कश्मीर को ले कर जब विचार हो तो माना जाए कि शेष भारत में जैसे हिंदू-मुस्लिम साथ रहते है वैसे घाटी में भी रहते है। इसलिए कश्मीर का मसला अलग-खास नहीं बल्कि भारत की धर्मनिरपेक्षता की साझा बुनावट का मसला है।
इस परीक्षा की अमित शाह ने अनदेखी की हुई है। घाटी में मुस्लिम-हिंदू साझा रिहायश बनवाने (या उसकी शुरूआत भी नहीं होने) की कोशिश तक शुरू नहीं हुआ है। सोचे, कैसा शर्मनाक सत्य है जो दो सालों में भारत के दो लोगों ने भी (हिंदूओं ने) घाटी में जमीन नहीं खरीदी! इस बाबत संसद में हुए सवाल पर दो लोगों के जमीन खरीदने का जब जवाब मिला तो बीबीसी वेबसाइट ने पडताल करके बताया कि ये दो लोग भी जम्मू क्षेत्र के है!
इसका क्या अर्थ है? कह सकते है मोदी सरकार और अमित शाह को जो करना था कर दिया और क्या करें! आखिर धारा-370 खत्म कर दी। 35 ए खत्म कर दिया। राज्य की सीमाएं बदल गई। दर्जा बदल गया। अगले साल शायद विधानसभा चुनाव भी हो। विधानसभा क्षेत्रों का नए सिरे से परीसीमन हो रहा है। बहुत संभव है सियासी चतुराई से अमित शाह शायद जम्मू-कश्मीर में हिंदू मुख्यमंत्री की शपथ करवा दे। इससे भाजपा को पूरे देश में फायदा होगा। भक्त हिंदू तब 2024 के लोकसभा चुनाव से यह सोच कर झूमेगे कि श्रीनगर में हिंदू मुख्यमंत्री! मोदी है तो सब मुमकिन है!
सवाल है इससे घाटी की इस्लामियत को तालिबानियत की हवा लगेगी या रूकेगी? कल्पना करें विधानसभा चुनाव के बाद भाजपा के जितेंद्रसिंह श्रीनगर में मुख्यमंत्री पद की शपथ ले तो वह कश्मीर समस्या का समाधान होगा या पानीपत की कथित तीसरी लड़ाई के लिए कश्मीर घाटी को रणक्षेत्र बनवाना होगा? ऐसे चुनाव और हिंदू मुख्यमंत्री की जगह तो उपराज्यपाल की हुकूमत को ही श्रीनगर में बनवाए रखना अधिक उपयोगी है। उसके जरिए पहले हिंदू पंडितों, हिंदुओं की वापसी, आबादी की बुनावट को बदलने का काम क्या प्राथमिकता से नहीं होना चाहिए? देश में भक्त हिंदू नैरेटिव बनवाना है या घाटी के जिलों में, जमीन पर हिंदुओं को फिर बसाना है? जब हिंदुओं के असंख्य घर, मंदिर सब लावारिश खाली पड़े है तो उन्हे आबाद बनाने का काम क्या धारा-370 के खत्म होने के बाद अमित शाह को प्राथमिकता से नहीं करवाना था? इसके बजाय झूठ, प्रोपगेंडा से घाटी में जन्माष्टमी के दिन झांकी के पोस्ट प्रचारित कराए जा रहे है। ताकि घाटी के बाहर के हिंदू इस झूठ में जीये कि श्रीनगर, अनंतनाग आदि में हिंदू का जीना संभव, पहले जैसा! प्रतिकात्मक फोटो, प्रचार से घाटी की सच्चाई से मुंह मोड़ा जा रहा है।
कश्मीर घाटी का सत्य-16: नब्बे का वैश्विक दबाव और नरसिंह राव
निश्चित ही धारा-370 की समाप्ति ब्रहास्त्र था। इसका घाटी में भारी मनोवैज्ञानिक असर हुआ। अलगाववादी और जिद्दी लोगों की गलतफहमी दूर हुई कि दिल्ली की सरकार में दम नहीं है। धारा-370 हटाने जैसे फैसलों की हिम्मत नहीं है! उस दिन एक और बात साबित हुई। दहशत में लोग सड़कों पर निकलने का साहस नहीं जुटा पाए। निश्चित ही उस दिन सुरक्षा बल बड़ी तादाद में तैनात था लेकिन वह तो हमेशा तैनात रहा है जबकि उसके बावजूद श्रीनगर में पत्थरबाजी, प्रदर्शन, हिंसा रूटिन की बात है। माना जाता है 5 अगस्त 2019 के दिन दिल्ली में गृह मंत्रालय से ले कर सुरक्षा सलाहकार अजित डोवाल सभी आंशका में थे कि श्रीनगर में लोग जब सड़कों पर निकलेंगे तो कैसे संभालेंगे। अजित डोवाल श्रीनगर जा कर बैठे भी। लेकिन कुछ नहीं हुआ। घाटी में लोग ऐसे दुबके रहे कि अपनी यह थ्योरी सही बनती है कि कश्मीरी मुसलमान कुल मिलाकर कश्मीरी पंडितों के वंशज है। यदि आईएसआई की स्थाई साजिश, ट्रेनिंग और पैसे का खेल नहीं होता तो हिंदुऔं की जांत-पांत में बंटा कश्मीरी मुसलमान (हां, यह भी सत्य) भी इस्लामियत के बावजूद वही कलेजा लिए हुए है जो कश्मीरी पंडित में हैं।
उस नाते श्रीनगर में मोदी सरकार और प्रशासन के पास खौफ बनवाने वाली यह दलील है कि जान लो अब धारा-370 नहीं है। सो श्रीनगर, घाटी में भी राज वैसे ही होगा जैसे चंडीगढ़, जयपुर, शिमला में होता है। मतलब जम्मू से जवाहर टनल के रास्ते शेष भारत के लोग घाटी में जा कर बसे। घाटी में बाहर के लोगों को जमीन आंवटन, कश्मीरी पंडितों, हिंदुओं को बसाने, निवेश करवाने, उन्हे टेंडर देने, काम-धंधे, कारखाने खुलवाने का काम होना चाहिए। क्यों बिहार-झारखंड-यूपी-बंगाल-ओडिसा से कामगारों का श्रीनगर पहुंचना शुरू नहीं हुआ? इन बातों में कुछ भी न होना ही यह चुनौती है कि तब घाटी की जमीनी हकीकत कैसे बदलेगी? इन सवालों का जवाब नहीं है कि घाटी में भारत के लोग जमीन खरीदते हुए, होटल-रिसोर्ट बनाते हुए, पर्यटन काम धंधे शुरू करते हुए क्यों नहीं है? क्या कश्मीरी पंडित घर लौटे? क्या घाटी में हिंदुओं की प्रोपर्टी, मंदिरों के खंडहर-जमीन मुस्लिम कब्जे से मुक्त हुए? घाटी की ब्यूरोक्रेसी से उन पटवारियों, तहसीलदारों, थानेदानों आदि को चिंहित करके हटाया जा सका तो गुल शाह सरकार से लेकर अब्दुला-मुफ्ती सरकारों में जमायत के इस्लामीकरण एजेंडे में भरे गए थे? क्या आम हिंदू, आम भारतीय के लिए घाटी भयमुक्त है? क्या घाटी का मुसलमान नियति, मजबूरी, डर कर व रियलिटी को समझ कर याकि किसी भी भाव में भारतपरस्त होता हुआ दिखता है? घाटी अलगाव और इस्लामियत का घेटो है या कश्मीरियत में लौट रहा इलाका? वहा हिंदुस्तानियत की संभावना है या तालिबानियत की?
कश्मीर घाटी का सत्य-15: एथनिक क्लींजिंगः न आंसू, न सुनवाई! क्यों?
तालिबानियत! यह शब्द मेरे कश्मीर घूमने और उस पर लिखने के एक महिने के भीतर उभरा है। अचानक ऐसी दो घटनाएं हुई है जिससे वर्तमान और भविष्य दोनों के अनुमान गंभीर बनते है। अफगानिस्तान में तालिबानी हूकूमत और 92 वर्षीय कश्मीरी नेता सैयद अली शाह गिलानी की मृत्यु के बाद कश्मीर घाटी की आबोहवा में, लोगों के दिलो-दिमाग में जो पका है, जो पकेगा उसे सोचते हुए लगता है कि मोदी सरकार और अमित शाह या भारत राष्ट्र-राज्य के बस में घटनाएं नहीं है। घाटी में भारी खालीपन है, खौफ और खुन्नस है और निश्चित ही लोगों की मनोदशा अब अफगानिस्तान पर जा टिक रही होगी। तभी बतौर गृह मंत्री अमित शाह के लिए ताजा घटनाओं के बाद रोडपैम में ये तीन चुनौतियां निर्णायक होनी चाहिए कि धारा-370 हटने के बाद इस्लामियत में पकी मनोदशा में कैसे भारत से नियति बंधी होने की बात पैठाई जाए? दो, कैसे घाटी की मनोदशा को काबुल में तालिबानियों के राज की हवा नहीं लगने दी जाए? तीन, सैयद अली शाह गिलानी की मौत के बाद घाटी की लीडरशीप में जो खालीपन बना है उसे कैसे हिंदुस्तानियत की लीडरशीप से भरा जाए?
एक भी काम आसान नहीं है। सबसे बड़ा संकट घाटी की इस्लामियत में भाजपा, संघ परिवार, मोदी-शाह की स्वीकार्यता की गुंजाईस जीरो है। इसलिए जो होना है वह एकतरफा और जोरजबरदस्ती की एप्रोच में होगा। इस कटु हकीकत में संभव नंबर एक काम घाटी को व्यवहारिक तौर पर शेष भारत के मिजाज अनुसार हिंदू-मुस्लिम साझे में परिवर्तित करने का है। क्यों नहीं आबादी की बसावट में श्रीनगर वैसा ही दिखे या बने जैसे जम्मू है या देश के बाकि शहर है। क्यों हिंदी, हिंदू, हिंदुस्तानी बसावट, बुनावट लिए हुए श्रीनगर या अनंतनाग नहीं है? (जारी)